जब हम इस्लाम में मानवाधिकार (Human rights)की बात करते हैं तो इसका मतलब यह होता हैं कि ये अधिकार अल्लाह के दिए हुए हैं। सरकारों और क़ानून बनाने वाले संस्थानों के दिए हुए अधिकार जिस तरह दिए जाते हैं, उसी तरह जब वे चाहें वापस भी लिए जा सकते हैं, और जब चाहें खुल्लम-खुल्ला उनके ख़िलाफ़ अमल करें। लेकिन इस्लाम में इन्सान के जो अधिकार हैं, वे ख़ुदा के दिए हुए हैं। दुनिया की कोई हुकूमत उनके अन्दर तब्दीली करने, वापस लेने या ख़त्म कर देने का अधिकार ही नहीं रखती हैं। ये दिखावे के बुनियादी हुक़ूक़ भी नहीं हैं, जो काग़ज़ पर दिए जाएँ और ज़मीन पर छीन लिए जाएँ। संयुक्त राष्ट्रसंघ के मानवाधिकार चार्टर, घोषणाओं और क़रारनामो को भी उनके मुक़ाबले में नहीं लाया जा सकता, क्योंकि इस पर अमल करने को कोई बाध्य नहीं है। लेकिन इस्लाम के दिए हुए मानवाधिकार इस्लाम धर्म का एक अहम हिस्सा हैं और इसे हर मुसलमान, मुस्लिम हुकूमत और इस्लाम के नामलेवा जिनका यह दावा हो कि ‘‘हम मुसलमान’’ हैं उन्हें अल्लाह के दिए हुए अधिकार को हक़ मानना पड़ेगा और इसे लागू करना पड़ेगा। अगर वह ऐसा नहीं करते और उन अधिकारों को जो अल्लाह ने दिए हैं, उसे छीनते हैं, या उनमें तब्दीली करते हैं या अमलन उन्हें रौंदते हैं तो उनके बारे में अल्लाह का फै़सला है कि-
‘‘जो लोग अल्लाह के हुक्म के ख़िलाफ़ फैसला करें वही काफ़िर हैं।’’ (कु़रआन 5:44)। इसके बाद दूसरी जगह फ़रमाया गया ‘‘वही ज़ालिम हैं।’’ (कु़रआन 5:45)। और तीसरी आयत में फ़रमाया ‘‘वही फ़ासिक़ हैं।’’ (कु़रआन 5:47)।
दूसरे शब्दों में इन आयतों का मतलब यह है कि अगर वे ख़ुद अपने विचारों और अपने फै़सलों को सही-सच्चा समझते हों और ख़ुदा के दिए हुए हुक्मों को झूठा क़रार देते हों तो वे काफ़िर हैं। और अगर वह ख़ुदाई हुक्मों को सच समझते हों, मगर अपने ख़ुदा की दी हुई चीज़ को जान-बूझकर रद्द करते और अपने फैसले उसके ख़िलाफ़ लागू करते हों तो वे फ़ासिक़ (फ़ासिक़ वह है जो फ़रमांबरदार ना हो) और ज़ालिम हैं (ज़ालिम वह है जो सत्य व न्याय के ख़िलाफ़ काम करे)। जो हुक़ूक़ अल्लाह ने इन्सान को दिए हैं, वे हमेशा रहने वाले हैं, अटल हैं। उनके अन्दर किसी तब्दीली या कमीबेशी की गुंजाइश नहीं है।
इस्लाम हर मानव को कई अधिकार प्रदान करता है। इन मानवाधिकारों में से कुछ निम्नलिखित हैं जिनकी इस्लाम रक्षा भी करता है
इस्लाम में जीवन का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और सम्मान का अधिकार-
حَدَّثَنَا عَلِيُّ بْنُ عَبْدِ اللَّهِ ، حَدَّثَنِي يَحْيَى بْنُ سَعِيدٍ ، حَدَّثَنَا فُضَيْلُ بْنُ غَزْوَانَ ، حَدَّثَنَا عِكْرِمَةُ ، عَنِ ابْنِ عَبَّاسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا ، أَنّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ خَطَبَ النَّاسَ يَوْمَ النَّحْرِ ، فَقَالَ : يَا أَيُّهَا النَّاسُ , أَيُّ يَوْمٍ هَذَا ؟ , قَالُوا : يَوْمٌ حَرَامٌ ، قَالَ : فَأَيُّ بَلَدٍ هَذَا ؟ , قَالُوا : بَلَدٌ حَرَامٌ ، قَالَ : فَأَيُّ شَهْرٍ هَذَا ؟ قَالُوا : شَهْرٌ حَرَامٌ ، قَالَ : فَإِنَّ دِمَاءَكُمْ وَأَمْوَالَكُمْ وَأَعْرَاضَكُمْ عَلَيْكُمْ حَرَامٌ كَحُرْمَةِ يَوْمِكُمْ هَذَا فِي بَلَدِكُمْ هَذَا فِي شَهْرِكُمْ هَذَا ، فَأَعَادَهَا مِرَارًا ، ثُمَّ رَفَعَ رَأْسَهُ ، فَقَالَ : اللَّهُمَّ هَلْ بَلَّغْتُ ، اللَّهُمَّ هَلْ بَلَّغْتُ , قَالَ ابْنُ عَبَّاسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا : فَوَالَّذِي نَفْسِي بِيَدِهِ إِنَّهَا لَوَصِيَّتُهُ إِلَى أُمَّتِهِ ، فَلْيُبْلِغْ الشَّاهِدُ الْغَائِبَ ، لَا تَرْجِعُوا بَعْدِي كُفَّارًا يَضْرِبُ بَعْضُكُمْ رِقَابَ بَعْضٍ .
पैगंबर मुहम्मद (ﷺ) ने मिना में ख़ुत्बा दिया, ख़ुत्बा में आप (ﷺ) ने पूछा, ऐ लोगों! आज कौनसा दिन है? लोग बोले ये हुर्मत का दिन है, आप (ﷺ) ने फिर पूछा और ये शहर कौनसा है? लोगों ने कहा ये हुर्मत वाला शहर है, आप (ﷺ) ने फिर पूछा ये महीना कौनसा है? लोगों ने कहा ये हुर्मत वाला महीना है, फिर आप (ﷺ) ने फर्माया बस तुम्हारा ख़ून (जान) तुम्हारे माल (सम्पत्ति) और तुम्हारी इज़्ज़त एक दूसरे पर उसी तरह हराम हैं जैसे इस दिन की हुर्मत, इस शहर और इस महीने की हुर्मत, इस कलिमे को आप (ﷺ) ने कई बार दोहराया और फिर आसमान की तरफ़ सर उठाकर कहा, ऐ अल्लाह! क्या मैंने (तेरा पैग़ाम) पहुँचा दिया, ऐ अल्लाह! क्या मैंने (तेरा पैग़ाम) पहुँचा दिया….
(सहीह अल बुखारी – 1739)
इस हदीस में हुरमत शब्द का मतलब पाक (पवित्र, मुबारक) है, और पवित्र चीजों को नुकसान पहुंचाना या पवित्र समय, पवित्र महीने और पवित्र जगह पर हराम काम करना मना है। इस हदीस में लोगों का खून, माल और इज्जत की पवित्र चीजों से तुलना किया गया है, जिसका मतलब है लोगों का खून, माल और इज्जत भी पवित्र है। जब तक वह उसे खुद अपवित्र ना कर दे। जैसे यदि वह किसी की हत्या कर दे तो उसने अपने आप को अपवित्र कर दिया अब वहां की सरकार या कानून उसे मौत की सजा दे सकती है। लेकिन जब तक वह ऐसा कोई काम ना करें तब तक उसका खून (कत्ल करना) हराम है। इस तरह यह हदीस हर व्यक्ति को जीवन का अधिकार देती है।
ठीक इसी तरह इस्लाम संपत्ति का अधिकार भी देती है जब तक व्यक्ति हलाल कमाई करता है तब तक उसका माल पवित्र (पाक) है और किसी का पवित्र माल हड़पना या नष्ट करना हराम है।
और ठीक इसी तरह इस्लाम हर फर्द (औरत या मर्द) के इज्जत (सम्मान) को पाक (पवित्र) मानता है। इसलिए इस्लाम में बिना वजह दूसरों की बेइज्जती करना या उनका मजाक उड़ाना हराम है।
किसी व्यक्ति के जीवन का अधिकार, संपत्ति का अधिकार और सम्मान का अधिकार को किसी व्यक्ति समूह या किसी सरकार द्वारा नाहक हड़पा नहीं जा सकता है, अगर कोई इसे नाहक हड़पता है तो अल्लाह तआला कयामत के दिन उसे सख्त सजा देंगे।
इस्लाम में समानता का अधिकार –
हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने कहा कि सारे इनसान आदम (अलैहि.) की सन्तान हैं। दुनिया में विभिन्न क़बीलों, क़ौमों और नस्लों का विभाजन सिर्फ़ एक-दूसरे की पहचान के लिए है। किसी गोरे को काले पर, किसी अरब को किसी ग़ैर अरब पर कोई श्रेष्ठता नहीं है। अल्लाह की नज़र में सब बराबर हैं। उनमें श्रेष्ठता अगर है तो उनके चरित्र के आधार पर है। (मुहम्मद ﷺ के आखरी खुत्बे से)
न्याय पाने का आधिकार
अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि धरोहर उनके स्वामियों को चुका दो और जब लोगों के बीच निर्णय करो, तो न्याय के साथ निर्णय करो। अल्लाह तुम्हें अच्छी बात का निर्देश दे रहा है। निःसंदेह अल्लाह सब कुछ सुनने-देखने वाला है।
(कुरान -4:58)
यहाँ कुरान में ईमान वालों को संबोधित किया जा रहा है कि सामाजिक जीवन की व्यवस्था के लिये मूल नियम यह है कि जिस का जो भी अधिकार हो, उसे स्वीकार किया जाये और दिया जाये। इसी प्रकार कोई भी निर्णय बिना पक्षपात के न्याय के साथ किया जाये, किसी प्रकार कोई अन्याय नहीं होना चाहिये।
हे ईमान वालो! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ साक्ष्य देने वाले रहो तथा किसी समुदाय की शत्रुता तुम्हें इसपर न उभार दे कि न्याय न करो। वह अल्लाह से डरने के अधिक समीप है। निःसंदेह तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उससे भली-भाँति सूचित है। (कुरान – 5:8)
कुरान की इस आयत में कहा गया है कि हमें उन लोगों के साथ भी इंसाफ करना चाहिए, जिनसे हम नफरत (शत्रुता) करते हैं।
ऐ ईमान लानेवालो! अल्लाह के लिए गवाही देते हुए इनसाफ़ पर मज़बूती के साथ जमे रहो, चाहे वह स्वयं तुम्हारे अपने या माँ-बाप और नातेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। कोई धनवान हो या निर्धन (जिसके विरुद्ध तुम्हें गवाही देनी पड़े) अल्लाह को उनसे (तुमसे कहीं बढ़कर) निकटता का सम्बन्ध है, तो तुम अपनी इच्छा के अनुपालन में न्याय से न हटो, क्योंकि यदि तुम हेर-फेर करोगे या कतराओगे, तो जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर रहेगी। (कुरान – 4:135)
उपरोक्त आयत में पूर्ण धर्मनिरपेक्ष, बिना पक्षपात के न्याय पर जोर दिया गया है, और सत्य के एलावा अन्य सभी पहलुओं को नजरअंदाज करने को कहा गया है।