सन् 1857 की भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम जिसमे अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में देश के कई हिस्सों से विद्रोह किया गया। इसको शुरू करने वालों या इसमें भाग लेने वालों के बारे में हमें बताया या पढ़ाया जाता रहा है ! लेकिन, ऐसे बहुत से वीर और शहीद हैं , जिनके बारे में अक्सर लोग जानते ही नहीं या बहुत कम लोग थोड़ा बहुत जानते हैं ! ऐसे ही एक वीर सेनानी और आज़ादी के सच्चे सिपाही हैं शहीद तुर्रेबाज़ खां उर्फ़ तुर्रम खां (turram khan), जिन्होंने सन् 1857 की क्रांति की मशाल को दक्षिणी भारत में रौशन करने का काम किया।
तुर्रम खान कौन हैं?
तुर्रम खां का जन्म हैदराबाद के बेग़म बाजार में हुआ था ! तुर्रम खां बचपन से ही बहुत बहादुर और दुस्साहसी थे ! अपने इसी बहादुरी और पराकर्मी प्रवर्ति के कारण वो सेना में भर्ती हो गए ! उनके शुरआती जीवन की बहुत अधिक जानकारी नहीं मिलती लेकिन 1857 की क्रांति के दौरान उन्होंने ऐसे बहादुरी और पराक्रम का परिचय दिया और ऐसे कारनामे किये जिनकी मिसाल मिलना मुश्किल है ! यही वजह है कि तुर्रम खां का नाम भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
सन् 1857 की क्रांति और तुर्रम खान-
1857 की क्रांति जो उत्तरी भारत के मेरठ से शुरू होकर दिल्ली तक पहुंची उसी क्रांति की मशाल को दक्षिणी भारत में रौशन करने का काम जनाब तुर्रम खां साहब ने किया और बहुत ही बहादुरी से किया जिसके लिए उन्होंने अपनी जान की भी परवाह नहीं की और शहीद हो गए ! उन्होंने हैदराबाद के निजाम और अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह किया था।
अपनी चिर परिचित फुट डालो और शासन करो की नीति के अनुरूप, 1857 के विद्रोह में अंग्रेज़ों ने उत्तरी भारत के सिपाहियों के विद्रोह को कुचलने के लिए दक्षिणी भारत की फौज और सैनिकों का इस्तेमाल करने का निश्चय किया और हैदराबाद के जमादार चीदा खां को विद्रोही सिपाहियों को कुचलने के लिए दिल्ली जाने के लिए कहा ! जमादार चीदा खां ने अंग्रेज़ों का विरोध किया और अपनी देशभक्ति का परिचय देते हुए, बड़ी बहादुरी से दिल्ली जाने से इंकार कर दिया ! अंग्रेज़ों ने सजा स्वरुप उन्हें ब्रिटिश रेजीडेंसी में क़ैद कर दिया।
जब तुर्रम खां को चीदा खां की गिरफ़्तारी की खबर मिली तो उन्होंने चीदा खां को छुड़ाने का फैसला किया और मौलवी अलाउद्दीन के साथ मिलकर 5000 जांबाज़ लड़ाकों को तैयार किया जिनमे छात्र और विद्रोही सैनिक थे ! यह एक बहुत ही दुस्साहसिक योजना थी, जिसमे अंग्रेजी छावनी पर हमला करना था ताकि अंग्रेज़ों को सँभालने का मौक़ा न मिले और 17 जुलाई 1857 को रात के समय उन्होंने अँगरेज़ छावनी पर हमला कर दिया, उनकी योजना थी की आधी रात को हमला करके चीदा खान को छुड़ाना आसान होगा और ये होता भी। लेकिन जहाँ एक तरफ देश में जांबाज़ देश भक्त थे वहीँ दूसरी तरफ गद्दार भी थे और ऐसे ही एक गद्दार ने अंग्रेज़ों को उनके हमले की खबर दे दी और अंग्रेजी सेना अलर्ट हो गयी , और उन्होंने तुर्रम खान के हमले को नाकाम कर दिया, क्यूंकि अंग्रेज़ों के पास तोप गोले और बंदूकें थीं वहीँ तुर्रम खान के जवानों के पास सिर्फ तलवारें थीं, लेकिन इसके बावजूद भी लड़ाई बड़ी भीषण हुई और डट कर मुक़ाबला हुआ, और लड़ाई रात भर चली लेकिन अँगरेज़ तुर्रम खान और उनके जांबाज़ों को काबू नहीं कर पाए ! तुर्रम खान की सेना ने बड़ी बहादुरी से अंग्रेज़ों के हथियारों का सामना किया और टक्कर दी और वहां से बच निकले !
पकड़े गए तुर्रम खां –
वहां से बच निकल कर तुर्रम खान तुपरन के जंगलों में जाकर छिप गए और अंग्रेज़ों ने उन पर 5000 का इनाम रख दिया, जिसके कारण बहुत से लालची गद्दार उनकी खबर के फ़िराक़ में लग गए और ऐसे ही एक गद्दार ने उनकी सूचना अंग्रेज़ों तक पहुंचा दी , जिसके कारण वो पकडे गए और और हैदराबाद कोर्ट में तुर्रम ख़ां पर मुक़दमा चला। उनसे अपने बाकी साथियों का पता बताने के लिए कहा गया, इसके लिए उन्हें बहुत टॉर्चर किया गया, मगर उन्होंने बताने से इन्कार कर दिया। ऐसे में तुर्रम ख़ां को काला-पानी की सज़ा दी गई। उन्हें जीवनभर सड़ने के लिए अंडमान भेजने की तैयारी शुरू हुई।
तुर्रम खान को शहीद कर दिया गया-
हालांकि, अंग्रेज़ उन्हें अंडमान भेज पाते, इसके पहले ही 18 जनवरी 1859 को तुर्रम ख़ां अंग्रेज़ों की गिरफ़्त से फ़रार हो गए। एक बार फिर तुर्रम खां तुपरन के जंगलों में अंग्रेजों खिलाफ लड़ने के लिए अपने सिपाहियों और दोस्तों को इकट्ठा करने लगे लेकिन मिर्जा कुरबान बग नामक एक तालुकदार ने इनाम के लालच में धोख से 24 जनवरी 1959 को तुर्राम खान को मार दिया, लेकिन तुर्रम खान भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में अमर बन गए।
तुर्रम खान को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाता है जो अपने से कई गुना ज्यादा ताकतवर अंग्रेजों से किसी भी हाल में हार मानने को तैयार नहीं थे, इसी कारण जब भी कोई अंग्रेजो के खिलाफ जाने की जुर्रत करता तो अंग्रेज उसे कहते “ज्यादा तुर्रम खां मत बनो” या “खुद को बड़ा तुर्रम खां समझते हो?” या “बड़ा तुर्रम खां बन रहा है” इस तरह यह एक मुहावरा बन गया जिसे आज खूब प्रयोग किया जाता है। इसलिए अब अगर आपको कोई बोले “ज्यादा तुर्रम खान मत बनो” तो समझें कि वह आपको एक नायक कह रहा है।
1857 की क्रांति और जंग के बारे में दिल्ली, मेरठ, झाँसी, लखनऊ, और मैसूर के बारे में बताया और पढ़ाया जाता है लेकिन हैदराबाद और शहीद तुर्रेबाज़ खान के बारे में बहुत ही कम या न के बराबर बताया जाता है ! देश भक्त तुर्रम खान ने अपनी बहादुरी से हैदराबाद में भी इस जंग की चिंगारी को हवा दी और अपना योगदान अपनी जान दे कर दिया और उन्ही की वजह से हैदराबाद के लोग स्वतंत्रता के लड़ाई के प्रति जागरूक हुए और इस लड़ाई ने दक्कन में भी आग पकड़ी ।
तुर्रम ख़ां वो ऐसे और जांबाज़ सैनानी थे, जिन्होंने कभी अंग्रेज़ों के आगे अपने घुटने नहीं टेके। जान दे दी मगर देश से गद्दारी नहीं की और मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। हैदराबाद के बेगम बाज़ार जो की उनकी जन्म स्थली थी वहां उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है।