शेख भिखारी (Sheikh Bikhari) का जन्म 2 अक्टूबर 1819 में झारखंड के ज़िला रांची के हुप्ते नामी एक गांव में एक बुनकर अंसारी परिवार में हुआ था। शैख़ भिखारी के वालिद का नाम शैख़ बुलन्द था। शैख़ भिकारी ने अपने गांव के स्कूल से ही पूरी तअलीम हासिल किया था और फिर छोटा नागपुर के महाराज की सेना में शामिल हो गए थे। बाद में वे बड़कागढ़ सूबे के हाकिम ठाकुर विश्वनाथ सहदेव की दावत पर वहां गए और जल्द ही वह औदाघर सूबे के दीवान बन गए।
1857 की क्रांति में योगदान –
सन् 1856 ई में जब अंग्रेजों ने राजा महाराजाओं पर चढ़ाई करके छल कपट से उनके राज्य को हथिया रहे थे तो बाकी हिंदुस्तान के बाकी राजा-महाराजाओं अंग्रेजों से भय और चिंता में पड़ गए। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव भी इन्ही में से थे, तो उन्होंने अपने वजीर पाण्डे गणपत राय, दीवान शेख भिखारी, टिकैत उमराँव सिंह से मशवरा किया। इन सभी ने अंग्रेजों के खिलाफ जंग करने की ठान ली तो 1857 के क्रांति के नेतृत्वकर्ताओं में से एक बाबू कुँवर सिंह से पत्राचार किया।
शैख़ भिखारी ने करामत अली अंसारी, अमानत अली अंसारी और शैख़ होरे अंसारी जैसे अपने ख़ास दूतों को अलग अलग सूबों में भेजा ताकि वहां के हाकिमों को भी एकजुट किया जा सके। इस बीच में शेख भिखारी ने बड़कागढ़ की फौज में नौजवानों को भरती करना और उन्हें अंग्रेजों से लड़ने की ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया।
अचानक 1857 की क्रांति भड़क उठी। रामगढ़ के रेजिमेंट ने अपने अंग्रेज अफसर को मार डाला। वहां की कुछ सिपाही और राम विजय सिंह और नादिर अली खान भाग के शेख भिखारी की फौज में आकर मिल गये। शैख़ भिखारी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के राम विजय सिंह और नादिर अली खान की मदद से ज़िला हजारीबाग के रामगढ़ में अंग्रेजों के सेना मुख्यालय पर हमला किया और लड़ाई जीत ली। ब्रिटिश कप्तान ग्राहम और उनके तीन अधिकारी हजारीबाग की ओर भाग गए और विद्रोहियों ने उनकी बंदूकें अपने कब्जे में ले लीं, शेख भिखारी ने वहां की तोपों को रांची की ओर मोड़ दिया। 2 अगस्त, 1857 को चुत्तुपलू की सेना ने रांची शहर पर नियंत्रण स्थापित किया। रांची, चाईबासा, संथाल परगना के जिलों से अंग्रेज भाग खड़े हुए।
इसी बीच अंग्रेजों की फौज जनरल मैकडोना के नेतृत्व में रामगढ़ पहुंच गयी और चुत्तुपलू पहाड़ के रास्ते से रांची आने लगी। उनको रोकने के लिए शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह अपनी फौज लेकर चुत्तुपलू पहाड़ी पहुंच गये और अंग्रेजों का रास्ता रोक दिया।
शेख भिखारी ने चुत्तुपलू की घाटी पार करनेवाला पुल तोड़ दिया और सड़क के पेड़ों को काटकर रास्ता जाम कर दिया। शेख भिखारी की फौज ने अंग्रेजों पर गोलियों की बौछार कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। यह लड़ाई कई दिनों तक चली। शेख भिखारी के पास गोलियां खत्म होने लगी तो शेख भिखारी ने अपनी फौज को पत्थर लुढ़काने का हुक्म दिया। इससे अंग्रेजों फौजी कुचलकर मरने लगे। यह देखकर जनरल मैकडोन ने मुकामी लोगों को मिलाकर चुत्तुपलू पहाड़ पर चढ़ने के लिए दूसरे रास्ते की जानकारी करली, फिर उस खुफिया रास्ते से चुत्तुपलू पहाड़ पर चढ़ गये।
अंग्रेजों ने शेख भिखारी एवं टिकैत उमराव सिंह को 6 जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ्तार कर लिया और 7 जनवरी 1858 को उसी जगह चुत्तुपलू घाटी पर फौजी अदालत लगाकर मैकडोना ने शेख भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया। 8 जनवरी 1858 को शेख भिखारी और टिकैत उमराव सिंह को चुत्तुपलू पहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी।
क्रांतिकारियों को डराने के लिए बरगद के पेड़ पर दोनों के शव लटकाए गए थे, उस बरगद के पेड़ को फंसीरी बरगद कहा जाता है। हालांकि उनकी वीरता और बलिदान की कहानी स्थानीय लोगों और रांची शहर के चौराहे पर उनकी मूर्तियों की याद में उकेरी गई है, लेकिन देश के बाकी हिस्सों तथा राष्ट्रीय कथा और आधुनिक इतिहास की किताबों में शेख भिखारी अज्ञात और गुमनाम हैं।