मौलाना मोहम्मद बरकतुल्लाह भोपाली ( Moulana Mohamad Barakatullah Bhopali ) का जन्म 7 जुलाई 1854 को भोपाल में हुआ था । बरकतुल्लाह एक महान विद्वान, क्रांतिकारी, विचारक और उग्र पत्रकार थे । वह सात भाषाओं को जानते थे । उन्हें आदर से मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली के रूप में जाना जाता है बरकतुल्लाह भारत के बाहर से लड़ने वाले प्रमुख क्रांतिकारी आवाज़ों में से एक थे ।
प्रारंभिक जीवन –
क़ाज़ी ए रियासत भोपाल मौलवी अब्दुल हक़ काबुली से मंतिक़, फ़लसफ़ा और तफ़्सीर वग़ैरा सीखा और यहीं जब बरकतुल्लाह भोपाली तालीम हासिल कर रहे थे, तब उन्हे शाह वलीउल्लाह मुहद्दिस देहलवी (र.अ.) जैसी अज़ीम शख़्सयत को पढ़ने का मौक़ा मिला। मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली को पहली बार अल्लामा जमालउद्दीन अफ़ग़ानी (र.अ.) से मिलने का शर्फ़ अपने उस्ताद मौलवी अब्दुल हक़ के घर पर ही हासिल हुआ जो की बरकतुल्लाह भोपाली के उस्ताद मौलवी अब्दुल हक़ काबुली (र.अ.) के बुलावे पर भोपाल तशरीफ़ लाए थे।
अल्लामा जमालउद्दीन अफ़ग़ानी (र.अ.) सारी दुनिया के मुसलमानों में एकता व भाईचारों के लिए दुनिया का दौरा कर रहे थे। बरकतुल्लाह भोपाली ना सिर्फ़ जमालउद्दीन अफ़ग़ानी(र.अ.) से मुलाक़ात की बल्के उनके ख़्यालात से बहुत मुतास्सिर भी हुए, इस मुलाक़ात ने उनके अंदर एक नई तड़प पैदा कर दी।
इसी तड़प ने उन्हें अंग्रेज़ी शिक्षा लेने पर मजबूर कर दिया। माँ-बाप के इंतक़ाल के बाद मौलाना भोपाल छोड़ बंबई चले गए। वहां पहले खंडाला और फिर बंबई में ट्यूशन पढ़ाकर अपनी पढ़ाई जारी रखी।
स्वतंत्रता के लिए प्रयास –
1887 में वो आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए। इंग्लैंड की चकाचौंध कर देने वाली ज़मीन पर पैर रखा तो वहां की दुनिया ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला देश हिन्दुस्तान गरीबी व पिछड़ापन का शिकार क्यों है। हिन्दुस्तान की हालात इतनी ख़राब क्यों और यहां के हालात इतने अच्छे कैसे? उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि यहां की खुशहाली हिन्दुस्तान की आर्थिक लूटमार पर निर्भर है।
यहीं से मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली ने अपने देश पर ढाए जा रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने की ठान ली। उनकी वीरता और निर्भीकता का इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उन्होंने लन्दन में रहकर अपने देश की आज़ादी की लड़ाई के लिए क़लम उठाया। वह अंग्रजों के ख़िलाफ़ बहादुरी और बेबाकी से लिखते रहे।
मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली एक जन्मजात सेनानी थे। अत्याचार और दमन के विरुद्ध विद्रोह की भावना उनके स्वभाव में ही थी। इसलिए अपने जीवन के शुरुआती दिनों में, उन्होंने विदेशी नौकरशाही के क्रूर चंगुल से भारत को आजाद कराने के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया। लक्ष्य निर्धारित होने के बाद, उन्होंने अपने दिल और आत्मा को उस कार्य में लगा दिया, जिसके लिए उन्होंने अपनी हर ऊर्जा और विचार को समर्पित कर दिया।
भारतीय स्थिति के अध्ययन ने उन्हें इस तथ्य से आश्वस्त किया कि स्वराज का एकमात्र तरीका सक्रिय क्रांति के माध्यम से ही हासिल किया जा सकता है। उन्होंने अपना ध्यान भारतीय युवाओं की ओर लगाया। जिसके लिए उन्होंने अपने सिद्धांत का प्रचार करना शुरू कर दिया। हालांकि, वह अपने रास्ते में आने वाली कठिनाइयों से बेखबर नहीं थे, और न ही उसने अपने कार्य की विशालता से।
शुरू से ही यह स्पष्ट था कि भारत में उनके और उनके ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए जल्द ही वह ब्रिटिश राज के हाथ से खुद को देश से बाहर कर दिया। यह तो बस सौभाग्य की बात थी कि वह वास्तव में शत्रु के उस जाल में नहीं फसें, जिससे बचने का कोई उपाय न था, सिवाय माफी मांगने और क्रांतिकारियों की मुखबिरी करने के।
इसलिए वो जापान चले गए वहां उन्होंने “अल-इस्लाम” नामक अख़बार निकाला, जिसमें वो नौजवानों को आजादी के लिए प्रेरित करने के लिए जोशीले लेख लिखते थे, और फिर उस अख़बार की कापियां भारत और विदेशों में बंटवाते थे।
जब वो अंग्रेज़ों की आंखों में खटकने लगे तो अंग्रेज़ी सरकार ने जापान सरकार पर उन्हें बंदी बनाने या देश से निकालने के दबाव डाला जिससे वो जापान छोड़कर अमेरिका चले गए। यहां पर भी वह भारत को आज़ाद कराने की कोशिश में लगे रहें।
उनके निर्वासन ने उन्हें विभिन्न देशों के विभिन्न क्रांतिकारी आंदोलनों के संपर्क में आने का अवसर दिया। विभिन्न देशों के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से मौलवी ने अपने ही लोगों की ताकत और कमजोरियों को जान लिया। किसी भी चीज़ से कहीं अधिक, उन्हें भारतीय जनता को संगठित करने की आवश्यकता महसूस हुई, जो उनकी राय में भारत की भविष्य की आशा है। व्यावहारिक उपाय के रूप में, उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानो को संगठित करने में अग्रणी भूमिका निभाई। वे जहां भी गए भारत के लिए सद्भावना पैदा करने में उनकी सेवा महत्वपूर्ण थी। इसी लिए उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता का तेजतर्रार चेहरा भी कहा जाता है।
सन् 1915 में तुर्की और जर्मन की सहायता से अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ चल रही “ग़दर लहर” में भाग लेने के लिए बरकतउल्लाह भोपाली अमेरिका से क़ाबुल (अफ़ग़ानिस्तान) में पहुंचे। 1 दिसंबर 1915 में मौलाना बरकतुल्लाह, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी और राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने मिलकर भारत की पहली अनंतिम सरकार का ऐलान कर दिया। इस अनंतिम निर्वासित सरकार में राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति,मौलाना बरकतुल्लाह प्रधानमंत्री, उबैदुल्ला सिंधी गृहमंत्री, युद्ध मंत्री मौलवी बशीर, और विदेश मंत्री चंपकरामन पिल्लई थे। इसका उद्देश्य भारतीय आन्दोलन के लिए अफगान अमीर के साथ-साथ, रूस, चीन और जापान का समर्थन हासिल करके आजादी के आंदोलन को और प्रभावी बनाना था।
अनंतिम सरकार को अफगान सरकार के आंतरिक प्रशासन से महत्वपूर्ण समर्थन मिला, हालांकि अफगानिस्तान अमीर ने खुले समर्थन की घोषणा करने से इनकार कर दिया था, और अंततः सन् 1919 में ब्रिटिश दबाव में अफगानिस्तान को समर्थन वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। जिसके बाद इस सरकार का पतन हो गया ।
लगभग 8 साल बाद जून सन् 1927 में मौलाना बरकतुल्लाह ने अपने पुराने साथियों से मिलकर नई परिस्थितियों में नई जमीन पर नया प्रोग्राम बनाने का इरादा कर राजा महेन्द्र प्रताप के साथ जर्मन जहाज़ पर सवार होकर अमेरिका के लिए चल दिए।
भारत से अपने निर्वासन की अवधि के पैंतीस वर्षों तक – वह एक राजनीतिक शरणार्थी के रूप में जगह-जगह भटकते रहे, इस दौरान उसके सिर पर अंग्रेजों ने बड़ी इनाम की राशि रखी थी । मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली ने बहुत कुछ सहा, वह तमाम तरह की परीक्षाओं से गुजरे, फिर भी कुछ भी उन्हें उनके गंभीर उद्देश्य से नहीं रोक सका। वह हमेशा की तरह अपने विश्वासों में दृढ़ थे, जो निरंतर पीड़ा के माध्यम से और अधिक दृढ़ हो गया। एक राजनीतिक नेता के रूप में मौलवी बरकतुल्लाह की दूरदर्शिता उल्लेखनीय थी। उनके पास क्षमता और दृष्टि की एक अद्भुत संपत्ति थी, जिसने उन्हें भारतीय समस्या को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखने में सक्षम बनाया। मौलाना का मानना था कि किसी भी देश को कीमत चुकाए बिना कभी भी आजादी नहीं मिल सकती। इसलिए स्वतंत्रता, कष्ट से, बलिदान से और रक्त से प्राप्त करनी है।
आखिरी पल में भी भारत की चिंता करते रहे-
20 सितंबर 1927 की आखिरी रात मौलाना बरकतुल्लाह इस दुनिया से चले गए। अपने जीवन की आखिरी रात को उन्होंने अपने साथियों से पूरे होश में कहा, “मैं जीवन भर ईमानदारी के साथ अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करता रहा हूं। और आज जब मैं इस जीवन को छोड़ता हूं, जहां मुझे अपने जीवन में खेद है, देश को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने का मेरा प्रयास सफल नहीं हो सका। लेकिन मैं इस तथ्य से भी अवगत हूं कि मेरे देश को मुक्त करने के लिए लाखों वीर पुरुष मेरे पीछे आए हैं, जो ईमानदार, बहादुर और उससे भी अधिक साहसी हैं। अब मैं हूं अपने प्यारे देश के भाग्य को उनके हाथों में सौंपते हुए, इत्मीनान से जा रहे हैं।”
भारत के क्रांतिकारियों के लिए मौलवी बरकतुल्लाह प्रेरणा के स्रोत थे। वह हिन्दुस्तान के लिए जिए और हिन्दुस्तान के लिए मरे। ऐसे सम्मानित नेता की स्मृति को प्रतिष्ठित करने का एकमात्र उपयुक्त तरीका उनके उदाहरण का अनुकरण करना है।
सन् 1988 में बरकतुल्लाह के सम्मान में भोपाल विश्वविद्यालय का नाम बदल कर बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय कर दिया गया।