मीर वारिस अली (Meer Waris Ali) ख़ुद को मुग़ल ख़ानदान का फ़र्द मानते थे। जो बरुराज पुलिस चौकी में जामदार के पद पर तैनात थे।
14 मई 1855 को मुजफ्फरपुर जेल में बंद क़ैदी और वहां के किसानों द्वारा अंग्रजों के खिलाफ किए गए विद्रोह को ‘लोटा विद्रोह’ कहा जाता है जिसके मास्टरमाइंड मीर वारिस अली भी थे। हालांकि इस पूरे घटनाक्रम में कैदियों और किसानों का बड़ा नुकसान हुआ, और विद्रोह दब गया। इस पूरे घटनाक्रम के लिए वारिस अली को ज़िम्मेदार ठहराया गया। वारिस अली पर यह आरोप था कि 1857 में मुजफ़्फ़रपुर जेल तोड़ने की घटना और क़ैदियों की बगावत में उनका हाथ था।
एक सरकारी अफ़सर का विद्रोहियों का साथ देना सरकार की नज़र में बग़ावत था, इस लिए सरकारी आदेश पर उनके मकान को घेर लिया गया। 23 जून 1857 को वारिस अली को गिरफ़्तार कर लिए गया, 6 जुलाई 1857 को उन्हे फांसी की सज़ा हो गई, और 23 जुलाई 1857 को उन्हें फांसी पर लटका कर शहीद कर दिया गया।
इस तरह मीर वारिस अली भारत की आज़ादी के लिए बिहार से शहीद होने वाले पहले क्रांतिकारी होते हैं।
लोटा विद्रोह क्या था?
14 मई 1855 को मुजफ्फरपुर जेल में बंद क़ैदी उस समय लड़ने के लिए उठ खड़े हुए जब कैदियों से धातु का लोटा और बर्तन छीनकर उन्हें मिट्टी का बर्तन दे दिया गया। मिट्टी का बर्तन एक बार शौच के लिए इस्तेमाल हो जाए तो अपवित्र माना जाता है और अंग्रेज़ ये बात समझने को तैयार नहीं थे। उनको डर था कि धातु के लोटे और बर्तन को गलाकर हथियार और जेल तोड़ने का सामान बनाया जा सकता है।
क़ैदी बहुत नाराज़ हुए और विद्रोह कर दिया, इसमें कुछ सरकारी कर्मचारी और वहां के किसानों ने कैदियों का साथ दिया। कई अंग्रजों की हत्या कर दिया गया और जेल तोड़ दिया गया। लेकिन आखिर में अंग्रजों ने विद्रोह पर काबू पा लिया।
विद्रोह दोबारा न हो इसलिए जेल में बंद कैदियों को पुनः धातु के लोटा और बर्तन के प्रयोग की अनुमति अंग्रेजों ने दे दिया।
एक गुमनाम क्रांतिकारी
शहीद वारिस अली को उसके शहादत के 160 साल बाद भी आज़ाद हिन्दुस्तान में शहीद का दर्जा नही मिला। पहल भी हुई, मांग भी हुई! पर अब तक कोई ठोस नतीजा सामने नही आया।
आज़ादी के काफ़ी समय बाद मुज़फ़्फ़रपूर मुनिस्पल कार्पोरेशन ने मोती झील से रेल गोदाम वाली सड़क का नाम वारिस अली की याद में बदल कर वारिस अली रोड कर दिया था जो समय के साथ बदल कर पहले वरसल्ली रोड और फिर स्टेशन रोड में बदल गया।
आज इस क्रांतिकार की याद में न कोई स्मारक है और न कोई भवन या रोड। अब इस क्रांतिकारी का नाम मशहूर शायर और लेखक शाद अज़ीमाबादी की किताब ‘तारीख़ ए बिहार’ में और “Contesting Colonialism and Separatism: Muslims of Muzaffarpur Since 1857” जैसे कुछ किताबो में ही बाकी है। यहां तक 1909 में VD सावरकर ने अपनी किताब ‘1857 की क्रांति’ में मीर वारिस अली का ज़िक्र किया था, कि किस तरह वो ‘कल्मा ए शहादत’ पढ़ते हुए अपने वतन हिन्दुस्तान की ख़ातिर शहीद हुए।
कहते हैं जो कौम अपना इतिहास भुला देती हैं वह नष्ट हो जाती है।