आज बड़े अफ़सोस का मक़ाम है की हम अपने क़ौम की ऐसी जांबाज़ और महान क्रन्तिकारी मुस्लिम महिला को भूल चुके हैं जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए एक महान प्रयास किया। जिस समाज में महिलाओं और खासकर मुस्लिम महिलाओं को संकीर्ण दृष्टिकोण से देखा जाता रहा है, उसी समाज में बेग़म हज़रत महल एक महान उदाहरण पेश करती हैं ! जिन्होंने न सिर्फ एक साधारण पृष्ठभूमि से होने के बावजूद , अपने आपको एक महान राजनीतिज्ञ, क्रन्तिकारी और कुशल शासिका के रूप में सिद्ध किया! बल्कि इतिहास में एक अविस्मरणीय किरदार निभाया।
आप मे से बहुत ही कम लोग आज के समय मे बेग़म हज़रत महल के बारे ने जानते होंगे। आज हम आपको बेग़म हज़रत महल के बारे में बताने वाले है। बेग़म हज़रत महल ने भारत मे 1857 की क्रांति में बहुत बड़ा योगदान दिया था।
बेग़म हज़रत महल का जन्म लगभग सन 1820 में अवध प्रांत के फैजाबाद जिले में हुआ था। बचपन के समय मे बेग़म हज़रत महल का नाम मुहम्मदी खानम था। बचपन मे ही माता पिता ने उन्हें शाही दलालों को बेच दिया था तब वह शाही हरम में एक खावासिन (रसोइया) के तौर पर काम करने लग गई थीं। बाद में वे ‘परि’ के तौर पर पदोन्नत हुईं, और उन्हें ‘महक परि’ के नाम से जाना जाता था। अवध के नवाब की शाही गुलाम (बांदी) के तौर पर स्वीकार किए जाने पर उन्हें “बेगम” का ख़िताब हासिल हुआ, और उनके बेटे बिरजिस क़द्र के जन्म के बाद उन्हें ‘हज़रत महल’ का ख़िताब दिया गया था।
( नोट- इस्लाम में गुलाम बांदियों को पत्नी जैसा ही हक प्राप्त होता है और उनसे होने वाले बच्चों को भी पिता और पिता की विरासत में समान अधिकार प्राप्त होता है। )
अवध के नवाब वाजिद अली शाह, हजरत महल की रणनीतिक कौशल और नेतृत्व की शक्ति को देखकर हैरान था, इसीलिए नवाब ने बेगम को अपने राज्य के कई मामले की बागडौर थमा दी थी।
जब अंग्रेजों ने नवाब को कैद कर लिया–
सन् 1856 में अंग्रेजो ने अवध प्रान्त पर हमला कर दिया और उसे अपने कब्जे में ले लिया तथा वाजिद अली शाह को कोलकाता भेज दिया। तब बेगम हजरत महल ने पहली बार अवध प्रान्त पर शासन करने का फैसला किया और अपने पुत्र बिरजिस कदर को अवध की गद्दी पर बिठा दिया और संरक्षक के रूप में सत्ता संभाली।
1857 का भारतीय विद्रोह–
सन् 1857 में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का विरोध शुरू किया। अँगरेज़ ईस्ट इंडिया कंपनी ने सड़कें बनाने और अंग्रेज़ी संस्थान स्थापित करने के लिए मंदिरों और मस्जिदों को आकस्मिक रूप से ध्वस्त किया था, जिसका बेग़म ने पुरज़ोर विरोध किया, उन्होंने अंग्रेज़ सरकार द्वारा धार्मिक आज़ादी की अनुमति देने के दावे का मज़ाक उड़ाया !
बेगम हज़रत महल के रणनीतिक कौशल और नेतृत्व करने की क्षमता से प्रभावित होकर अवध के सभी ज़मींदार, किसान और सैनिकों आदि ने बेगम हजरत महल का साथ देने का फैसला किया। बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में भारत की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की सबसे लंबी और सबसे प्रचंड लड़ाई लखनऊ में लड़ी गई जिसमें सरफ़द्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और मम्मू ख़ान ने उनका साथ दिया। जिसके परिणाम स्वरूप ‘चिनाट की लड़ाई’ में विद्रोही सेना की शानदार जीत हुई। बेगम हज़रत महल ने 5 जून 1857 को अपने बेटे बिरजिस क़द्र को मुग़ल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया और अंग्रेज़ों को लखनऊ रेजिडेंसी में शरण लेने के लिए विवश होना पड़ा।
इस दौरान अंग्रेज़ों ने बेगम हज़रत महल के पास समझौते के तीन प्रस्ताव भेजे जिसमे पेशकश कि वो ब्रिटिश अधीनता में उनके पति का राजपाट लौटा देंगे, लेकिन बेगम हज़रत महल इसके लिए राजी नहीं हुईं। हज़रत महल ने अंग्रजों के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से साफ़-साफ़ कह दिया कि उन्हें या तो सबकुछ चाहिए, या कुछ भी नहीं।
इसके कुछ समय बाद ही ईस्ट इंडिया कंपनी व अंग्रेजो की सेना ने फिर से लखनऊ और अवध के अधिकतर हिस्से पर कब्जा कर लिया जिसके कारण बेगम हजरत महल को अंग्रेजों का विरोध करना बंद करना पड़ा। लेकिन इसके कुछ समय बाद ही बेगम हजरत महल ने फिर से नाना साहेब के साथ मिलकर अंगेजो का विरोध करना शुरू कर दिया और फिर इन्होंने फैजाबाद के मौलवी शासक अहमदुल्लाह शाह के साथ मिलकर शाहजहाँपुर प्रान्त पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने कब्जे में ले लिया। बेगम हजरत महल ने अंग्रेजों पर हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्म के साथ भेदभाव करने का आरोप भी लगाया और इसका विरोध किया ! बेगम हज़रत महल अक्सर सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए बैठकें बुलाती थीं, उन्हें बहादुर बनने और आज़ादी के लिए लड़ने के लिए कहती थीं।
आलमबाग़ की लड़ाई के दौरान अपने जांबाज़ सिपाहियों की उन्होंने भरपूर हौसला आफ़ज़ाई की और हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं। लखनऊ में पराजय के बाद वह अवध के देहातों में चली गईं और वहाँ भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई।
हजरत महल को नेपाल भागना पड़ा–
लेकिन आख़िरकार फिर बेगम हजरत महल को हार का सामना करना पड़ा और उन्हें नेपाल भागना पड़ा, जहाँ उन्हें पहले राणा के प्रधान मंत्री जंग बहादुर ने शरण से इंकार कर दिया, लेकिन बाद में उन्हें रहने की इजाज़त दी गयी। और अपना आगे का पूरा जीवन वही पर ही व्यतीत किया । हज़रत महल की मृत्यु मात्र 59 वर्ष की आयु में 7 अप्रैल 1879 को नेपाल के काठमांडू में हुआ और उन्हें काठमांडू के जामा मस्जिद के मैदान में दफ़नाया गया। उनकी मृत्यु के बाद, रानी विक्टोरिया (1887) की जयंती के अवसर पर, ब्रिटिश सरकार ने बिरजिस क़द्र को माफ़ कर दिया और उन्हें घर लौटने की इजाज़त दे दी !
बेगम हज़रत महल के शव को काठमांडू की जामा मस्जिद के मैदान में ही दफना दिया गया था और उस स्थान पर एक मकबरा बनाया गया है, जो कि दरबार मार्ग के पास में ही और वर्तमान समय मे इस मकबरे की देखभाल जामा मस्जिद की केन्द्रीय समिति करती है।
बेगम हजरत महल के साहस को सम्मान देने और महान विद्रोह में उनकी भूमिका के लिए 15 अगस्त 1962 को लखनऊ में स्थित हजरतगंज के पार्क ‘ओल्ड विक्टोरिया पार्क’ का नाम बदलकर ‘बेगम हज़रत महल पार्क’ कर दिया गया है। इसका नाम बदलने के साथ साथ सरकार द्वारा इसमें बेगम हजरत महल का एक संगमरमर का स्मारक भी बनाया गया है। बेगम हज़रत महल पार्क में रामलीला, दशहरा और लखनऊ महोत्सव जैसे प्रसिद्ध त्योहारो के समारोहों का आयोजन किया जाता है ।
इन सब के अलावा भारत सरकार ने बेगम हजरत महल को सम्मान देने के लिए 10 मई 1984 को भारत मे बेगम हजरत महल के नाम पर एक डाक टिकट जारी किया था। अल्पसंख्यक समुदाय की 9वी से 12वी कक्षाओं की छात्राओं को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा बेगम हजरत महल राष्ट्रीय छात्रवृत्ति योजना चलाई जाती है !
ऐसी महान क्राँतिकारी, वीरांगना नारी और महान शासिका को सलाम !