गुलाम मोइनुद्दीन खान (Bakshi Ghulam Mohiuddin Khan) एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी हैं जिनका इतिहास में बहुत ज्यादा जिक्र नहीं मिलता है और आज उन्हें लगभग भुला सा दिया गया है लेकिन बख्शी गुलाम मोइनुद्दीन खान के स्वाभिमान और देशभक्ति की गौरवमयी गाथा को सुनकर और पढ़कर हर भारतीय गौरवान्वित महसूस करता है।
गुलाम मोइनुद्दीन खान में मातृभूमि की रक्षा एंव देशप्रेम की भावना कूट कूट कर भरी थी जिसके चलते उन्होने अपनी जान की परवाह किए बगैर स्वतंत्रता सेनानियों की रक्षा और देश की स्वतन्त्रता के लिये अपने से ताकतवर अंग्रेजों और देश के गद्दारों से भिड़ गए।
गुलाम मोइनुद्दीन खान कौन थे?
टोंक रियासत के पहले नवाब अमीरूद्दौला (1817 से 1834) के शासन काल में अफगानिस्तान से एक बक्षी परिवार निम्बाहेड़ा में आकर बसा, इस परिवार के दो भाई गुलाम मोइनुद्दीन खान व गुलाम गौस खान शामिल थे, दोनो जांबाज सिपाही थे तथा युद्धकलां, तोप निर्माण एवं तोप चालन में सिद्धहस्त थे।
जिस समय 1857 क्रांति का बिगुल बजा उस समय परगना निम्बाहेड़ा, रियासत टोंक के अधिकार में था । उस समय गुलाम मोइनुद्दीन खाँ परगना निम्बाहेड़ा पालोद के जागीरदार थे, साथ ही निम्बाहेड़ा रियासत टोंक में सेना के उच्चाधिकारी भी थे।
सन् 1857 की क्रांति-
1857 में अंग्रेजों के खिलाफ जन आन्दोलन का केंद्र दिल्ली था, लेकिन उसकी लपटे यहां और हिन्दुस्तान के हर हिस्से दिखाई दी ।
वजीर मोहम्मद खा इस समय टोंक रियासत का नवाब था। वह अंग्रेजों का वफादार था, अतः उसकी प्रजा, सेना तथा सगे संबंधियों ने विद्रोह कर दिया। नवाब के भाई साहबजादा मोहम्मद मुनीरखा तथा मामा हाफिज अमीर आलमखा व मामा अजीमुल्लाखां ने भी विद्रोह कर दिया। उसकी फौज ने उसे किले में कैद कर दिया परन्तु कुछेक स्वामीभक्त उसे छुड़ा लाए। नवाब ने रियासत में ऐलान कराया कि जो भी विद्रोही उसकी रियासत में आएगा उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा।
टोंक की फौज ने मुगल बादशाह की मदद करने दिल्ली जा रहे विद्रोहियों की आवभगत की तथा रसद दी। टोंक की फौज के बहुत से अफसर तथा सैनिक इन विद्रोहियों के साथ तथा अलग से भी, मुगल बादशाह की मदद करने दिल्ली चले गए। इन जाने वालों में प्रमुख थे मगलखा रिसालदार और उनके 117 सैनिक, सैयद अमानतशाह रिसालदार और उनके 153 सैनिक। 13 अगस्त को इनका अंग्रेजों के साथ जंग हुआ। 21 अगस्त तक इन डेढ़ हजार विद्रोहियों में से दिल्ली में केवल 200 रह गए थे। बाकी या तो मारे गए या तो इधर उधर या फिर टोंक वापस आ गए।
टोंक वापस आ चुके सैनिकों का पीछा करते हुए उन्हें पकड़ने के लिए आए अंग्रेज सैनिकों ने जब निंबाहेड़ा कस्बे के किले में घुसने की कोशिश की तो टोंक के हाकिम ने किले के सब दरवाजे बन्द करवा दिए तथा इन सैनिकों को नहीं घुसने दिया। हाकिम की इस कार्यवाही से अंग्रेज अफसर शावर्स बड़ा नाराज हुआ।
अतः 19 सितम्बर 1857 को कप्तान शावर्स नीमच मे कर्नल जेक्सन के साथ अंग्रेज सैनिकों की फौज लेकर निम्बाहेड़ा पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने अपने एक चौबदार और चपरासी को कस्बे में भेजा और आमिल को बुलवाया। आमिल के हाजिर होने पर कप्तान ने हुक्म दिया कि निम्बाहेडा उसके कब्जे में दे दिया जाए तथा उसके सब सैनिक अपने-अपने शस्त्रों का समर्पण कर दें।
आमिल कस्बे में गया तथा अपने अफसरों और सैनिकों को बुलाकर शावर्स का हुक्म सुनाया। उन्होंने दोनों ही हुक्म मानने से मना कर दिया। ‘शावर्स ने अपने चौबदार को आमिल के पास फिर भेजा और कहा कि वह अब और अधिक इंतजार नहीं कर सकता। इस पर आमिल तथा बक्शी गुलाम मोहियुद्दीन अपने दो भाइयों के साथ कर्नल जेकसन के पास हाजिर हुए और कहा कि वे स्वयं तो अपने शस्त्र समर्पण करने के लिए तैयार हैं परन्तु सैनिकों ने शस्त्र देने से साफ मना कर दिया है। यहकह कर वे वापस कस्बे में चले गए।
कुछ समय बाद चौबदार व चपरासी पुनः शावर्स द्वारा भेजे गए और आमिल को कहलवाया कि यदि सैनिक उसके नियंत्रण में नहीं है तो वह स्वयं कप्तान के सामने तत्काल हाजिर होवे इससे सैनिकों में तत्काल रोष फैल गया। उन्होंने कस्बे के परकोटे के सब दरवाजे बन्द कर दिए । परकोटे पर तोपें चढ़ा दी गई। गुलाम मोहियुद्दीन ने चौबदार तथा चपरासी को कहा कि आमिल कप्तान के पास नहीं जाएगा।
इसके तत्काल बाद सैनिकों तथा चौबदार व चपरासी के बीच तलवारों से मुठभेड़ हो गई जिसमें चौबदार व चपरासी पायल हो गए। जान बचाकर भागे व एक मंदिर में रात होने तक छिप गए। गुलाम मोहियुद्दीन ने उन दोनों की इधर-उधर काफी तलाश की। रात होने पर चौबदार व चपरासी कुछेक स्थानीय लोगों की सहायता से परकोटा पार करके अंधेरे में कप्तान शावर्स के खेमे में पहुंचे।
कप्तान शावर्स ने सारी रात कस्बे के परकोटे को हल्की तोपों से तोड़ने की कोशिश परन्तु असफल रहा। रात को ही आमिल व बशी गुलाम मोहिद्दीन मुल्य पटेल ताराचन्द की मदद से कस्बे से सैनिकों के साथ बच निकले। जब सुबह कप्तान को मालुम हुआ कि चिड़िया उड़ गई है तो उसने कस्बे को कब्जे में ले लिया। कस्बे के बीच में अंग्रेज सिपाहियों की फौज ले जाई गई और यूनियन जैक झंडा फहराया गया।
आजादी की जंग में निम्बाहेड़ा के और भी कई वाशिन्दो का बहुत बड़ा योगदान रहा है, ऐसे और भी कई जाबांज योद्धा हुए है जिन्होने आजादी के लिये अपनी जान की परवाह नही करते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।